BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
लोगों की राय

बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।

अथवा
मिल के उपयोगितावाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
अथवा
मिल के सूक्ष्म उपयोगितावाद की समीक्षात्मक व्याख्या कीजिए।
अथवा
मिल का सिद्धान्त वैन्थम के सिद्धान्त का सुधार है। विवेचना कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. बैन्थम तथा मिल के सिद्धान्त में अन्तर बताइये।
2. मिल का परिष्कृत उपयोगितावाद सिद्धान्त क्या है?
अथवा
परिष्कृत उपयोगितावाद क्या है?
अथवा
क्या मिल परिष्कृत उपयोगितावादी हैं? व्याख्या के द्वारा स्पष्ट कीजिए।
3. परार्थवाद क्या है? संक्षेप में समझाइए।
4. मिल के परिष्कृत उपयोगितावादी सिद्धान्त को अन्य किस नाम से जाना जाता है?
5. मिल के सिद्धान्त की आलोचना कीजिए।

उत्तर -

 

वैन्थम तथा मिल का सिद्धान्त

आधुनिक सुखवादी सिद्धान्तों में जे. एस. मिल का विशिष्ट स्थान है। मिल के सिद्धान्त को बैन्थम के सिद्धान्त के समान ही उपयोगितावादी कहा जाता है। परन्तु बैन्थम ने स्थूल उपयोगितावाद को प्रधानता दी जबकि मिल ने परिष्कृत उपयोगितावाद को प्रधानता दी है। मिल ने उपयोगितावाद की व्याख्या इन शब्दों में की है वह मत जोकि उपयोगिता अथवा अधिकतम आनन्द के सिद्धान्त को नैतिकता का आधार मानता है तथा यह मानता है कि कर्म उसी अनुपात में उचित है जिसमें वे आनन्द उत्पन्न करते हैं और उसी अनुपात में अनुचित हैं जिसमें वे आनन्द को उल्टा उत्पन्न करने की ओर प्रवृत्त होते हैं। आनन्द का तात्पर्य दुःख का अभाव और सुख है तथा आनन्दहीनता का अर्थ सुख का अभाव ओर दुःख है।"

बैन्थम और मिल के सिद्धान्त में अनेक अन्तर भी हैं। मिल के सिद्धान्त को जानने से बैन्थम के सिद्धान्त तथा मिल के सिद्धान्त में अन्तर स्पष्ट करना अनिवार्य है।

वैन्थम तथा मिल के सिद्धान्त में अन्तर

बैन्थम तथा मिल के सिद्धान्त में निम्नलिखित अन्तर दृष्टिगोचर होते हैं -

(1) प्रवृत्तियों का गुणात्मक भेद - बैन्थम के अनुसार, प्रवृत्तियों में कोई भेद नहीं होता है, परन्तु मिल ने मानव प्रवृत्तियों में भेद किया तथा बताया है कि बौद्धिक प्रवृत्तियाँ शारीरिक प्रवृत्तियों से अधिक श्रेष्ठ हैं।

(2) सुखों में गुणात्मक भेद - मिल ने विभिन्न प्रकार के सुखों में गुणात्मक भेद किया। बैन्थम के अनुसार, सभी सुख एक ही प्रकार हैं। मिल के अनुसार, "सन्तुष्ट मूर्ख होने से एक असंतुष्ट सुकरात होना अधिक शुभ है।"

(3) मानव प्रकृति की धारणा में अन्तर - बैन्थम तथा मिल के सिद्धान्त में मानवीय प्रकृति को भिन्न-भिन्न रूप में स्वीकार किया गया है। बैन्थम के अनुसार, मनुष्य तथा पशु में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। परन्तु मिल के मनुष्य अन्य पशुओं से श्रेष्ठ हैं क्योंकि मनुष्य के पास बुद्धि नामक विशिष्ट गुण है। 

(4) नैतिक सिद्धान्तों से सम्बन्धित अन्तर - बैन्थम के स्थूल उपयोगितावाद तथा मिल . के परिष्कृत उपयोगितावाद के नैतिक दृष्टिकोण में भी अन्तर है। बैन्थम के अनुसार, मनुष्य को गुणात्मक भेद किये बिना अधिकाधिक परिमाण में सुख देने वाले कर्म करने चाहिए जबकि मिल के ... अनुसार, मानव को पशु नहीं बनना है उसकी मानवता मूल्यवान है। ऐन्द्रिक सुख का तिरस्कार करके मनुष्य बनना श्रेयस्कर है।

बैन्थम के समान मिल भी सुख को जीवन का एक लक्ष्य मानता है। उसका कहना है कि "आनन्द ही मानव क्रिया का एकमात्र लक्ष्य है।'

मिल का परिष्कृत उपयोगितावाद सिद्धान्त

मिल ने उपयोगितावाद को इन शब्दों में प्रस्तुत किया "वह मत जोकि उपयोगितावाद अथवा अधिकतम आनन्द के सिद्धान्तों को नैतिकता का आधार मानता है तथा यह मानता है कि कर्म उसी अनुपात में उचित हैं जिसमें कि वे आनन्द उत्पन्न करते हैं और उसी अनुपात में अनुचित हैं जिसमें वे आनन्द का उल्टा उत्पन्न करने की ओर प्रवृत्त होते हैं।'

सुखवाद का समर्थन - मिल ने अपने सिद्धान्त में सुखवाद का समर्थन किया है। मनोवैज्ञानिक सुख के पक्ष में इन्होंने निम्नलिखित तर्क दिया है-

"किसी वस्तु की इच्छा करना और उसको सुखदायक पाना, वास्तव में एक ही मनोवैज्ञानिक तथ्य का नामकरण करने के दो रूप हैं। किसी वस्तु को वांछनीय समझना और उसको सुखदायक समझना एक ही और वही बात है और किसी वस्तु को जिस अनुपात में उसका विचार सुखद है उसको छोड़कर किसी अन्य रूप में चाहना एक भौतिक और तात्विक असम्भावना है।"

मिल ने स्पष्ट रूप से कहा है कि "आनन्द ही मानवीय क्रियाओं का एकमात्र लक्ष्य है।" सुखवादी दृष्टिकोण को आधार मानकर मिल ने सद्गुणों, स्वास्थ्य, सम्मान आदि को भी आनन्द का साधन माना है। सुखदायक कर्म ही शुभ तथा दुखदायक कर्म ही अशुभ हैं। 

नैतिक सुखवाद का समर्थन - मिल के अनुसार सुखवाद नैतिक होता है। वह नैतिक सुखवाद को बैन्थम की तरह मनोवैज्ञानिक सुखवाद पर आधारित मानता है।

मिल के अनुसार किसी भी दृश्य वस्तु को सिद्ध करने का एकमात्र यही प्रमाण हो सकता है कि लोग यथार्थ में उसको देखते हैं। कोई ध्वनि सुनाई पड़ती है, इसका एकमात्र प्रमाण यही है कि लोग उसे सुनते हैं। कोई भी वस्तु वांछनीय है इसका एकमात्र प्रमाण यही है कि लोग यथार्थ में उसकी इच्छा करते हैं।"

परार्थवाद का समर्थन मिल का सिद्धान्त परार्थवादी सिद्धांत है। मिल के अनुसार, व्यक्ति का परम श्रेय उसका अपना सुख नहीं बल्कि सामान्य सुख में वृद्धि करना है। उसी कर्म को व्यक्ति को शुभ मानना चाहिए जो सामान्य सुख में वृद्धि करता है तथा वह अशुभ है जो सामान्य सुख को घटाता है। परम सुखवाद को सिद्ध करते हुए मिल ने कहा "सर्वसाधारण का आनन्द वांछनीय है, इसके लिए इसके अतिरिक्त कोई तर्क नहीं दिया जा सकता कि प्रत्येक व्यक्ति जहाँ तक कि उसको प्राप्य मानता है वहाँ तक अपना निजी आनन्द चाहता है। प्रत्येक व्यक्ति का आनन्द उसके लिए शुभ है और इसलिए सबका सुख सब व्यक्तियों के समुदाय के लिए शुभ है।"

मिल ने परार्थवाद को मानव मनोविज्ञान के आधार पर भी सत्यापित किया। मिल ने इस क्षेत्र में सहानुभूतिमूलक सुखवाद की भी व्याख्या की। मिल यह मानता था कि व्यक्ति स्वभाव से स्वार्थी होता है। इसलिए वह अपने सुखों को प्राप्त करने का प्रयास करता है। परन्तु मानव का स्वभाव ऐसा होता है कि वह दूसरे व्यक्तियों को दुःख देकर कष्ट महसूस करता है तथा उसे दूर करने का हर सम्भव प्रयास करता है। इस प्रकार व्यक्ति परार्थ में भी स्वार्थ का अनुभव करने लगता है। वह दूसरे के सुख को सुख मानने लगता है। व्यक्ति स्वार्थ से परार्थ की ओर मुड़ जाता है।

नैतिक अंकुश - मिल परार्थ को स्वार्थ से उत्पन्न करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता है अपितु वह बैन्थम के समान नैतिक अंकुशों को मानता है। मिल ने एक आन्तरिक अंकुश की बात भी कही। आन्तरिक अंकुश को स्पष्ट करते हुए मिल ने कहा कि यह सजातीयता की भावना मानव की मूलभूत प्रवृत्ति है। स्वार्थी व्यक्ति उसकी आवाज को दबा देता है, परन्तु सुसंस्कृत व्यक्ति में सामाजिकता की भावना निहित रहती है। यह सामाजिकता की भावना आन्तरिक अंकुश अथवा नैतिक अंकुश रखती है।

मिल के अनुसार, "आन्तरिक अंकुश मानव जाति के सुख की अनुभूति, दूसरों के कष्टों और भावनाओं के सम्मान की अनुभूति, मानव जाति की अनुभूतियों, हमारे साथी प्राणियों में एक होने की इच्छा है जोकि अन्तःस्थ होने पर भी स्वाभाविक तो है ही।"

परिष्कृत उपयोगितावाद

मिल का सिद्धान्त सुखवादी होते हुए परिष्कृत उपयोगितावादी था। मिल के अनुसार, "अपने स्वयं के आनन्द और दूसरों के आनन्द के बीच उपयोगितावाद उसको कठोरता से तटस्थ, परोपकारी दर्शक के रूप में रखना चाहता है। नजारथ के यीशु के स्वर्ण सिद्धान्त में हम उपयोगिता के नीतिशास्त्र की पूर्णात्मा का अध्ययन करते हैं। जैसा हमारे साथ होना चाहिए वैसा ही करना और अपने पडोसी को अपने ही समान प्यार करना उपयोगितावादी नैतिकता की आदर्शपूर्णता का निर्माण करते हैं।"

मिल ने अपने सिद्धान्त में अधिकतम परिमाण की बात के साथ यह भी कहा कि विभिन्न सुखों के मध्य गुणात्मक अन्तर पाया जाता है।

मिल ने अपना परिष्कृत दृष्टिकोण इन शब्दों में प्रस्तुत किया "इस तथ्य को मानना उपयोगितावाद के सिद्धान्त के सर्वथा अनुकूल है कि कुछ इस प्रकार के सुख अन्य सुखों से अधिक वांछनीय और मूल्यवान हैं। यह हास्यपद होगा कि जब दूसरी सब वस्तुओं को मानने में परिमाण तथा गुण का विचार किया जायें। तब सुखों के माप में केवल परिमाण पर ही आधारित माना जाय।'

मिल की इसी विचारधारा के कारण उनके सिद्धान्त को परिष्कृत सुखवाद के नाम से जाना जाता है।

सुखों का मापन - बैन्थम के विरुद्ध मिल ने सुखों के गुणात्मक भेद को महत्वपूर्ण माना है। मिल के अनुसार, "किसी सुख की वांछनीयता उसके परिणाम तथा गुण दोनों पर निर्भर करती है। मिल ने सुखों को मापने के लिए मानदण्ड भी प्रस्तुत किया। मिल के शब्दों में, "दो सुखों में यदि कोई ऐसा सुख है जिसको कि जिन्होंने उन दोनों का अनुभव किया है, वे बिना किसी नैतिक बाध्यता के निश्चित रूप से महत्व देते हैं तो वही वांछनीय सुख है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि वे जोकि दोनों से समान रूप से परिचित हैं और दोनों की प्रशंसा करने और उपभोग करने में समान रूप से समर्थ हैं। ऐसे ही रहन-सहन को स्पष्ट रूप से अधिक महत्व देते हैं जिसमें उसकी उच्चतर शक्तियों का उपयोग हो। बहुत हो कम मानव प्राणी पशुओं के सुखों को भोग करने के लिए निम्न पशुओं में परिवर्तित किए जाने को सहमत होंगे।'

मिल ने अपने सिद्धान्त में गौरव का बोध भी उल्लेख किया। उनके अनुसार, मनुष्य मात्र में एक गौरव का बोध होता है जोकि उसकी मनुष्यता का लक्षण है। इन समस्त विशेषताओं के कारण ही मिल के सिद्धान्त को परिष्कृत उपयोगितावाद कहा जाता है तथा उनका सिद्धान्त बैन्थम के सिद्धान्त की तुलना में श्रेष्ठ माना जाता है।

मिल के सिद्धान्त की आलोचना

'मिल के सिद्धान्त की अनेक बातों परं आलोचना की गयी है जो निम्नलिखित है- 

(1) सुखवाद के विरुद्ध तर्क - मिल के सिद्धान्त को मौलिक रूप से सुखवाद का सिद्धान्त माना जाता है। अतः इस सिद्धान्त में वे सभी कमियाँ हैं जो अन्य सुखवादी सिद्धान्तों में व्याप्त हैं।

(2) आनन्द और सुख में अन्तर - मिल ने आनन्द को प्रमुख माना है परन्तु उसे बाद में सुख कहकर परिभाषित किया यह उसने गलती की।

डिवी के अनुसार, सुख अस्थायी और सापेक्ष है। वह जब तक कोई विशेष क्रिया रहती है तभी तक और क्रिया के प्रसंग में ही रहता है। आनन्द स्थायी तथा सार्वभौम है। वह केवल तभी होता है जबकि कार्य ऐसा हो जोकि आत्मा के सभी हितों की पूर्ति करें अथवा प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी संघर्ष की ओर न ले जाए। आत्मा के किसी एक पक्ष की अनुभूति के विपरीत आनन्द सम्पूर्ण आत्मा की अनुभूति है।

(3) मनोवैज्ञानिक सुखवाद के दोष - मिल के सिद्धान्त में वे सभी दोष हैं जो मनोवैज्ञानिक सुखवाद में पाये जाते हैं। मिल के अनुसार, सदगुण, यश, इत्यादि प्रारम्भ में तो सुखवाद के साधन हैं, परन्तु अन्त में वे साध्य बन जाते हैं। मिल के सिद्धान्त की एक आलोचना इस आधार पर भी की जाती है कि उपयोगितावाद तथा मनोवैज्ञानिक सुखवाद मंं कोई मेल नहीं है। व्यक्तिगत सुख से सामाजिक सुख को अभीष्ट मान लेना असम्भव है।

तार्किक दोष - मिल के सिद्धान्त की आलोचना उसके तार्किक दोष के कारण भी हुई। मिल के नैतिक सुखवाद के समर्थन में दिया हुआ तर्क वाक्यालंकार हेत्वाभास (Fallacy of fugure of seech) से दोषयुक्त है। मिल ने सुख को वांछनीय माना है। इस बात की आलोचना करते हुए कहा गया है कि जिसकी इच्छा की जा सके वह वांछनीय नहीं है। वांछनीय का अर्थ है जिसकी इच्छा की जानी चाहिए। सामान्य रूप से जिस वस्तु की इच्छा की जाती है वह वांछनीय नहीं होती। जिसे बुद्धि द्वारा उचित माना जाता है वह वस्तु वांछनीय होती है।

मैकेन्जी के अनुसार, "जब हम किसी वस्तु को वांछनीय कहते हैं तो बहुधा हमारा तात्पर्य केवल यही नहीं होता कि जो इच्छा करने योग्य है। ऐसी वस्तु मुश्किल से ही कोई होगी जिसकी इच्छा न की जा सकती हो। हमारा तात्पर्य यह होता है कि उसकी वांछनीयता बुद्धियुक्त है अथवा उनकी इच्छा की जानी चाहिए। डिवी तथा हाट्स ने भी इस मत का समर्थन किया है। 

गुणात्मक भेद सुखवाद के विरुद्ध है सेठ के अनुसार "गुण एक सुखवाद से बाहर की कसौटी है। सुखवाद की एकमात्र कसौटी परिमाण है। गुण का तथाकथित अन्तर केवल तभी समीचीन हो सकता है जबकि सुख उच्चतर प्रकृति के लिए परिणाम भेद से सम्बन्धित हो।'

वास्तव में सुखवाद में गुणात्मक भेद के लिए कोई स्थान नहीं है। गुणों पर विचार करने के बाद हम पूर्णतावाद की ओर मुड़ने लगते हैं।

सुखवादी परार्थवादी नहीं हो सकता - मिल ने अपने सिद्धान्त में सामाजिक उपयोगितावाद का समावेश किया, परन्तु यह आदर्श सुखवाद नहीं हो सकता। सुखवाद परार्थवादी नहीं हो सकता।

इन कारणों के अतिरिक्त मिल के सिद्धान्त की अन्य कारणों से भी आलोचना की गई. जिनमें निम्नलिखित हैं-

1. योग्य न्यायाधीशों का निर्णय बुद्धि का निर्णय है यह उचित नहीं है।
2. मानव और 'गौरव बोध' सुखवाद के विरोधी हैं।
3. सहानुभूति की दोषपूर्ण व्याख्या की गई है।
4. आन्तरिक अंकुश बुद्धिवाद की ओर अग्रसर करता है।
5. गुण और परिणाम में विरोध है।

अतः उपरोक्त गुण-दोषों के आधार पर कहा जा सकता है कि मिल का सिद्धान्त बैन्थम के सिद्धान्त से श्रेष्ठ है।

...पीछे | आगे....

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book